चित्रकूट और बृहस्पति

 *तुम्ह सारिखे सन्त प्रिय मोरे।*

*धरहुँ देह नहिं आन निहोरे।।* 

चित्रकूट और बृहस्पति


जिस समय भरतजी चित्रकूट जा रहे थे,

तब

देवताओं ने अपने गुरु

   बृहस्पति से तर्क दिया

   गुरुदेव!

भरत और श्रीराम

का मिलन नहीं होना चाहिए।

*बृहस्पति ने पूछा-क्यों?*

देवता बोले-प्रभु का अवतार तो 

 हम लोगों की रक्षा के लिए होता है

 और

हमारे कार्य हेतु ही वह बन गये हैं।

यदि भरत,भगवान को लौटा ले आयेंगे,

तो भगवान के अवतार का उद्देश्य ही 

अपूर्ण रह जायेगा।

*यह सुनकर बृहस्पतिजी बोले*

कि तुमने यह कैसे जाना कि 

  भगवान केवल

तुम लोगों के लिए अवतार लेते हैं?

*देवताओं ने कहा-महाराज!*

सारे शास्त्र कहते हैं कि भगवान 

  देवताओं की

रक्षा के लिए अवतार लेते हैं।

*बृहस्पतिजी ने तुरन्त एक प्रश्न किया*

यदि भगवान तुम्हारे लिए अवतार

लेते,तो तुम पर जो संकट आता है,

तब वे लाखों बरस तक तुम्हें संकट

में पड़े क्यों रहने देना चाहते हैं?

*“सहे सुरन्ह बहु काल विषादा।*

*नरहरि किये प्रगट प्रहलादा।।”*

बोले-वास्तव में भगवान तुम लोगों के लिए नहीं आते,वे प्रह्लाद,

विभीषण आदि भक्तों/

   संतों के लिए अवतार लेते हैं।

यह बात अलग

है कि उनके आगमन से तुम्हारा

 काम भी सध जाया करता है।

इस

समय भी भगवान ने अवतार भरत के

 लिए लिया है,तुम्हारे लिए नहीं।

इस अवतार का मुख्य उद्देश्य है,

भरत और श्रीराम का मिलन,रावण

का बध नहीं!

यह बड़ी अटपटी बात लगती है कि

 भगवान देवताओं के लिए नहीं

आते।

ऐसा क्यों?

यह हमारे बड़े काम की बात है।

इसलिए कि लक्ष्य की दृष्टि से देवताओं 

और दैत्यों की मनोबृत्ति में

कोई अन्तर नहीं है।

दैत्य भी अपने जीवन में सुख चाहते हैं और

देवता भी।

सुख की परिभाषा दोनों के लिए एक है।

देवताओं की

मनोबृत्ति भोगियों की ही मनोबृत्ति है।

जैसे पापी धन,स्त्री,वैभव,यश या सत्ता में सुख मानता है,वैसे ही

पुण्यात्मा भी अगर पूजा-पाठ आदि धर्म कर्म करने का परिणाम

इन्हीं वस्तुओं की प्राप्ति माने,तो विवेक की दृष्टि से एक पापी

और पुण्यात्मा में अंतर कहाँ है?हाँ!उस सुख को पाने के तरीके

में भेद हो सकता है।

एक पापी या आसुरी ब्यक्ति यह मानता है कि इस वस्तु को चाहे

जिस किसी तरीके से पाने की चेष्टा करे और पुण्यात्मा यह 

सोचता है कि नहीं!हम उसे सही तरीके से ही प्राप्त करने का

प्रयास करेंगे।

इस भोग-सुख की स्पृहा के कारण पुण्यात्मा के जीवन में भोग

के लिए अपने हितार्थ सुरक्षित बनाये रखने की चिन्ता पैदा होती

है और वह इसके लिए भगवान की भी पूजा करता है,तथा रावण

को भी संतुष्ट रखना चाहता है।यही देवताओं की समस्या है।

यही कारण है कि वे चित्रकूट में भगवान राम के पास भी दिखाई

देते हैं और लंका में रावण की सभा में भी।

गोस्वामीजी लिखते हैं---

*अमर नाग किंकर दिसिपाला।*

*चित्रकूट आए तेहि  काला।।”*

और जब हनुमानजी रावण की सभा में पहुँचते हैं,तब वे देखते हैं

*कर जोरें सुर दिसिप बिनीता।*

*भृकुटि बिलोकत सकल सभीता।।”*

ऐसा क्यों?इसलिये कि राम को प्रसन्न रखो,जिससे वे देते रहें और

रावण को भी प्रसन्न रखो,जिससे वह छीन न ले।भले और बुरे दोनों

को प्रसन्न रखना ही देवताओं का दर्शन है।गोस्वामीजी लिखते हैं

*आए देव परम स्वारथी।*

*बचन कहहिं जनु परमारथी।।”*

भले को प्रसन्न रखो,क्योंकि उससे मिलने की सम्भावना है और बुरे

ब्यक्ति को प्रसन्न रखो,क्योंकि उससे भय है।इस प्रकार जो लोभ और

भय दोनों की पूजा,दोनों की स्तुति करता हो,ऐसे ब्यक्ति के लिए

भगवान को अवतार लेने की क्या आवश्यकता है?

संत,लोभ और भय दोनों से सदैव परे होता है,अतः ईश्वर का अवतार

तो संतों के लिए होता है,जैसा भगवान ने विभीषण से शीर्षक-मंत्र-पंक्ति

में उच्चारित किया।💐🙏

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